बीर विनोद के अनुसार कुंभलगढ़ किले का निर्माण 1448 ई. (विक्रम संवत् 1505) में प्रारम्भ व 1458 ई. में पूर्ण हुआ है, जबकि कुंभलगढ़ किले में लगे पुरातत्त्व विभाग के लेख के अनुसार इसका निर्माण 1443 ई. से 1458 ई. के मध्य हुआ है।
कुम्भलगढ़ दुर्ग I दुनिया की दूसरी सबसे लंबी दीवार से मशहूर कुम्भलगढ़ किला
निर्माण – महाराणा कुम्भा द्वारा 1448-1458 ई. के मध्य करवाया था व अपनी पत्नी कुम्भल की याद में नाम कुंभलगढ़ रखा था। इस स्थान पर मौर्य शासक सम्प्रति (सम्राट अशोक के दूसरे पुत्र) द्वारा निर्मित दुर्ग के ध्वंशावशेष थे।
- उपनाम: – मत्स्येन्द्र / माहोर/कुम्भपुर/कुम्भलमेरू/कुम्भलमेरन ।
- उपनाम: – मेवाड़ की शरणस्थली।
मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी मेवाड़ के राजपरिवार का आश्रयस्थल।
ध्यान रहे- महाराणा प्रताप की संकटकालीन राजधानी चावण्ड थी।
- कुंभलगढ़ दुर्ग के वास्तुकार- मंडन
- कुंभा ने इसे नागौर विजय की उपलक्ष में बनवाया था।
- किले का कुल क्षेत्रफल 268 हैक्टेयर है।
- यह किला मारवाड़ मेवाड़ की सीमा पर स्थित है।
अरावली पर्वत श्रृंखला की 13 पहाड़ियों से घिरे गंधमादन पर्वत की चोटी पर बना गिरी दुर्ग है। (दुर्ग के समीप की पर्वत श्रृंखलाएँ- हेमकुट/नील/हिमवंत/निषाद/श्वेत आदि) कुम्भलगढ़ की दीवार इसे भारत की सबसे बड़ी प्राचीर कहा जाता है, यह 36 किमी लम्बी है। इसके परकोटे की दीवार इतनी चौड़ी है कि इस पर एक साथ 8 घुड़सवार चल सकते हैं।
(स्रोत– राजस्थान का इतिहास एवं संस्कृति कक्षा 10 मा. शि. बो अजमेर)
- यह दुर्ग सुदृढ़ प्राचीर व बुर्जी से युक्त तथा पर्वत शिखरों से घिरा है, यह मेवाड़ ही नहीं सम्पूर्ण राजस्थान के सर्वाधिक अभेद्य दुर्गों में माना जाता है। यह किला हाथीगुड़ा की नाल के ठीक निकट स्थित है।
- यह किला भी लिविंग फोर्ट की श्रेणी में आता है, इसके अन्दर की बस्ती ‘जूना भीलवाड़ा गाँव’ के नाम से जानी जाती है।
यहीं राणा सांगा का बचपन बीता, राणा सांगा की मृत्यु के बाद पन्नाधाय कुंवर उदयसिंह को बनवीर से बचाकर यहीं लायी थी। - यहीं पर उदयसिंह का लालन पालन हुआ, उदयसिंह का मेवाड़ महाराणा के रूप में राज्याभिषेक 1537 ई. में यहीं पर हुआ था। उदयसिंह ने यहीं से जाकर बनवीर को हरा कर चित्तौड़ पर विजय प्राप्त की थी। गोगुंदा में राजतिलक के बाद महाराणा प्रताप ने कुंभलगढ़ से ही मेवाड़ का शासन प्रारम्भ किया था, हल्दीघाटी युद्ध की तैयारी प्रताप ने कुंभलगढ़ दुर्ग से ही की थी। हल्दीघाटी युद्ध के बाद प्रताप ने सोनगरा मानसिंह को किले की जिम्मेदारी सौंपी। 3 अप्रैल, 1578 ई. को अकबर के सेनापति शाहबाज खाँ ने कुंभलगढ़ पर कब्जा कर लिया था, कुछ समय बाद ही प्रताप ने इसे पुनः प्राप्त कर लिया था।
कुम्भलगढ़ के प्रवेश द्वार:-
- प्रथम प्रवेश द्वार:- आरेठपोल I
- दूसरा:- हल्लापोल I
- तीसरा द्वार: -हनुमानपोल- कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति के अनुसार कुंभा मांडव्यपुर/मंडोर से हनुमान की मूर्ति लाया और 1515 विक्रम संवत् में इसे इस द्वार पर स्थापित करवाई।
- रामपोल:- (मुख्य प्रवेश द्वार), विजयपोल (भैरवपोल, निम्बोपोल, पागड़ापोल और गणेशपोल) ये प्रवेश द्वार किले के अन्दर बने हैं, जिनसे ऊपर के महलों (कटारगढ़) तक जाया जा सकता है।
- दाणीबट्टा :- किले के पूर्व में स्थित एक ओर प्रवेश द्वार, जो मेवाड़ को मारवाड़ से जोड़ता है।
- टीडा बारी:- किले के पश्चिम में मारवाड़ की तरफ खुलता प्रवेश द्वार।
किले के जल स्रोत:-
- मामादेव का कुंड I
- झाली बाब बावड़ी I
कटारगढ़ (मेवाड़ की आँख):-

- कटारगढ़ (मेवाड़ की आँख):- ये कुम्भलगढ़ दुर्ग में सबसे ऊपरी भाग में एक पहाड़ी पर स्थित अन्तः दुर्ग है, बादल महल इसी का ही एक भाग है।प्रताप की जन्म स्थली कटारगढ़ के पास स्थित जूनी कचहरी में महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. को हुआ था।
- बादल महल इसका निर्माण महाराणा फतेहसिंह ने करवाया था, इसे दो भागों में विभाजित किया गया है, जिसे मर्दाना महल व जनाना महल कहा जाता है।
- झाली रानी का मालिया (कटारगढ़ में स्थित है)
- कुम्भा के महल :- ये इस किले के सबसे प्राचीन महल हैं वर्तमान में खंडहर की स्थिति में हैं।
किले में बने मंदिर:-
- नीलकंठ महादेव का मंदिर:- (नागर शैली में) महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित है, कर्नल टॉड ने इसे यूनानी शैली का बताया है।
- 108 अग्नि बेदियाँ (वेदी मंदिर):– मुख्य द्वार के पास ही बना है जो ‘वेदी मंदिर’ भी कहलाता है।
- कुम्भास्वामी विष्णु मंदिर:- यह मंदिर किले के अंदरूनी भाग में स्थित है, इसी के पास मामादेव कुंड है। कुम्भा के पुत्र उदा द्वारा यहीं कुम्भा की हत्या की गई थी। इसे वर्तमान में ‘मामादेव मंदिर‘ के नाम से जाना जाता है।
- गोलराव मंदिर समूह :-
- बावन देवरी-
- सूर्य मंदिर व पीतलिया शाह मंदिर-
उड़ना राजकुमार:- महाराणा रायमल के पुत्र कुंवर पृथ्वीराज कार बाल्यकाल यहीं पर व्यतीत हुआ, कुंवर पृथ्वीराज की 12 खम्भों की छतरी यहीं पर है पृथ्वीराज को उसके बहनोई जगमाल ने जहर देकर मरवा दिया था। (छतरी का वास्तुकार धणषपना)
अबुल फजल:- ने ‘आइने अकबरी‘ में कुम्भलगढ़ के बारे में लिखा है कि “यह दुर्ग इतना बुलन्दी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर की पगड़ी गिर जाती है” कर्नल टॉड:- एट्रस्कन (जापान) की संज्ञा दी। • प्रसिद्ध इतिहासकार रायबहादुर हरविलास शारदा ने कुंभलगढ़ दुर्ग को महाराणा कुंभा की ‘सैनिक मेधा का प्रतीक’ बताया है। |
महाराणा कुम्भा ने कुंभलगढ़ का निर्माण पूर्ण होने की स्मृति में सिक्के निर्माता थे, जिन पर कुंभलगढ़ दुर्ग का नाम अंकित था।
- कुम्भलगढ़ प्रशस्ति:- 1460 ई.। यह प्रशस्ति 5 शिलाओं पर अंकित थी, इनमें से पहली, तीसरी व चौथी शिलाएँ ही उपलब्ध हैं। यह मामादेव मंदिर के पास लगी थी, जो वर्तमान में उदयपुर संग्रहालय में रखी गयी है, इसके रचयिता संभवतः कान्हा व्यास हैं। लेकिन जी, एच, ओझा के अनुसार इसके रचयिता महेश थे।
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