मेवाड़ के इतिहास ग्रन्थ वीर विनोद के अनुसार मौर्य राजा चित्रांग (चित्रांगद) ने यह किला बनवाकर अपने नाम पर इसका नाम ‘चित्रकोट’ रखा था, उसी का परिवर्तित नाम ‘चित्तौड़गढ़ दुर्ग I Chittorgarh Fort है। (स्रोत- राजस्थान का इतिहास एवं संस्कृति कक्षा 10 मा. शि. बोर्ड अजमेर)
यह chittorgarh durg ‘मेसा के पठार पर स्थित है। (समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 1850 फीट है) (स्रोत राजस्थान का इतिहास, संस्कृति, परम्परा एवं विरासत, जैन व माली)
चित्तौड़गढ़ दुर्ग I Chittorgarh Fort के उपनाम:-
राजस्थान का गौरव , चित्रकुटगढ़/चित्रकोट
- राजस्थान का दक्षिणी पूर्वी प्रवेश द्वार – दुर्गाधिराज
- गढ़ तो गढ़ वित्तौड़गढ़, बाकी सब गढ़ेया।
- यह ‘मालवा का प्रवेश द्वार’ कहलाता है।
- हिन्दू देवी देवताओं का अजायबघर कहलाता है।
- इसे ‘वीरों का तीर्थ’ भी कहा जाता है।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग I Chittorgarh Fort का निर्माण:-
चित्रांग मौर्य (वीर विनोद कुमारपाल प्रबन्ध/ मुहणीत नैणसी के अनुसार)
- चित्रांगद मौर्य मौर्य वंश के राजा बृहद्रथ का पुत्र था। यह किला 7वीं शताब्दी में निर्मित है।
- इसका पुनः निर्माण महाराणा कुम्भा ने 15वीं शताब्दी में करवाया।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग I Chittorgarh Fort की विशेषताएँ:-
राजस्थान के दुर्ग विभिन्न विशेषतों के लिए जाने जाते हैं I जिनसे हमारी प्राचीन स्थापना कला के बारे में पता चलता है
- यह 8 किमी लम्बाई व लगभग 2 किमी चौड़ाई में फैला है।
- इस किले का कुल क्षेत्रफल 305 हैक्टेयर है, इस प्रकार क्षेत्रफल की दृष्टि से यह राजस्थान का सबसे बड़ा किला है।
- किले का आकार व्हेल मछली के समान।
- बित्तौड़ दुर्ग में खेती भी होती है।
- यह राजस्थान का दूसरा प्राचीन किला है।
- राजस्थान का सबसे बड़ा लिविंग फोर्ट है।
- यह राजस्थान का सबसे बड़ा दुर्ग माना जाता है।
- यह गम्भीरी व बेड़च नदियों के संगम के पास बना है।
- इसके दक्षिणी हिस्से में मृगवन भी बना है।
- दिल्ली से मालवा व गुजरात जाने वाले मार्ग पर स्थित होने के कारण
- प्राचीन और मध्यकाल में इस किले का सामरिक महत्व था।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग I Chittorgarh Fort किले का इतिहास:-
राजप्रशस्ति के अनुसार – 734 ई. में बप्पा रावल (कालभोज) ने मौर्य वंश के अंतिम शासक मानमोरी को हराकर चित्तौड़ पर अधिकार किया था। दशरथ शर्मा के अनुसार चित्तौड़ दुर्ग का प्रथम विजेता रावल जैत्रसिंह है। चित्तौड़ पर पहला हमला रावल खुमाण के समय अफगानिस्तान के मामु ने 8वीं सदी में किया था। यह किला 9वीं शताब्दी में प्रतिहारों के अधीन रहा है। उसके बाद यह किला परमार राजा मुंज (मालवा का शासक) ने गुहिलों से छीन लिया था। 10वीं-11वीं शताब्दी में परमारों का आधिपत्य रहा है।
1133 ई. में गुजरात के सोलंकी राजा जयसिंह (सिद्धराज) ने यशोवर्मन को हराकर सोलंकियों के अधिकार में कर लिया। 1174 ई. के आसपास मेवाड़ के राजा सामन्त सिंह ने कुमारपाल के भतीजे अजयपाल को हरा कर पुनः गुहिलों के अधिकार में कर लिया। नागदा को इल्तुतमिश द्वारा विनाश किये जाने के बाद जैत्रसिंह ने चित्तौड़ को पहली बार राजधानी बनाया।
- 1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के अधिकार में आने के बाद इसका नाम ‘खिजराबाद‘ रखा गया।
- 1326 ई. में राणा हम्मीर ने इस पर अधिकार कर गुहिल वंश की सिसोदिया शाखा का शासन प्रारम्भ किया।
- मार्च 1535 ई. में चित्तौड़ के दूसरे साके के बाद बहादुरशाह के अधिकार में आ गया।
- मार्च 1536 ई. में मेवाड़ी सरदारों की सहायता से पुनः विक्रमादित्य के अधिकार में आ गया।
- 1536 से 1540 ई. के मध्य चित्तौड़ किला दासीपुत्र बनवीर के अधिकार में रहा।
- 1540 ई. में महाराणा उदयसिंह ने इसे बनवीर से छीन लिया।
- 1544 ई. में शेरशाह सूरी आक्रमण करने आया, तब उदयसिंह ने चित्तौड़ किले की चाबियाँ शेरशाह सूरी को सौंप दी थी।
- 1567-68 ई. में चित्तौड़ के तीसरे साके के बाद अकबर के अधिकार में आ गया।
- 1615 ई. में मुगल मेवाड़ संधि के तहत जहाँगीर ने चित्तौड़ किला महाराणा अमरसिंह प्रथम को सौंप दिया।
“महाराणा कुम्भा ने चित्तौड़ दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया, रथ मार्ग और सातों प्रवेश द्वारों, विजय स्तम्भ, कुंभ श्याम मंदिर, कुंभा के महल, श्रृंगार चंवरी का निर्माण करवाया।
चित्तौड़ दुर्ग के विस्तार एवं परिवर्द्धन का श्रेय महाराणा कुम्भा को जाता है। इसलिए चित्तौड़गढ़ दुर्ग का आधुनिक निर्माता महाराणा कुंभा को माना जाता है।“
चितौड़ किले में 7 प्रवेश द्वार है इनका निर्माण महाराणा कुम्भा ने 1433-68 ई. के मध्य करवाया था, जो क्रमशः निम्न प्रकार है-
[1]. पाडनपोल (बाघ सिंह रावत का स्मारक) चित्तौड़ किले का प्रथम प्रवेश द्वार है।
[2]. भैरव पोल देसूरी के भैरोंदास सोलंकी के नाम पर रखा गया जो 1535 के युद्ध में मारा गया था।
[3]. हनुमानपोल – भैरवपोल व हनुमानपोल के मध्य जयमल राठौड़ व कल्ला राठौड़ की छतरियों हैं।
[4]. गणेश पोल –
[5]. जोडनपोल (जोड़ला पोल)-
[6]. लक्ष्मण पोल –
[7]. रामपोल ये चित्तौड़ किले का मुख्य प्रवेश द्वार है इस अंतिम दरवाजे के सामने पत्ता सिसोदिया का स्मारक बना है। (पत्ता को 1568 में अकबर के विरुद्ध युद्ध में पागल हाथी ने सूंड से उठाकर पटक दिया था जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी)
सूरजपोल चित्तौड़ किले का पूर्वी दिशा में स्थित प्रवेश द्वार। त्रिपोलिया दरवाजा किले के अन्दरूनी भाग में स्थित है। बीका खो बुर्ज – चित्तौड़गढ़ की प्रमुख बुर्जी में से एक है।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग I Chittorgarh Fort के प्रमुख जल स्रोत:-
कुकडेश्वर का कुण्ड व कुकडेश्वर का मंदिर – किवदन्तियों के अनुसार ये दोनों निर्माण महाभारतकालीन हैं तथा पांडव पुत्र भीम से जुड़े हैं।
- रतनेश्वर तालाब यह तालाब महाराणा रतनसिंह द्वारा बनवाया गया है।
- भीमलत कुण्ड किंवदन्तियों के अनुसार पांडव भीम द्वारा निर्मित है।
- चित्रांग मोरी तालाब चित्रांगद मौर्य द्वारा निर्मित है।
- गोमुख कुंड- समीधेश्वर मंदिर के पास यह पवित्र कुण्ड स्थित है।
- पद्मिनी तालाब पद्मिनी महल के पास बना है।
किले के प्रमुख महल:-
कुंभा के महल महाराणा कुंभा द्वारा निर्मित है, यहाँ स्थित कंवरपदा में ही सांगा के पुत्र उदयसिंह का जन्म हुआ। पन्नाधाय द्वारा उदयसिंह की रक्षा व चन्दन के बलिदान की घटना भी यहीं हुई। कंवरपदा के महल सांगा ने मीरां के लिए बनवाये थे, ये कुम्भा महल का ही एक भाग है।
- जयमल हवेली – निर्माण उदयसिंह के काल में हुआ है।
- भामाशाह हवेली – दुर्ग में तोपखाने के पास जीर्ण शीर्ण अवस्था में है।
- आल्हा काबरा की हवेली – चित्तौड़ किले में
- राव रणमल की हवेली– चित्तौड़ किले में
लाखोटा बारी-चित्तौड़गढ़ दुर्ग में में स्लेश्वर कुंड से थोड़ी दूरी पर पहाड़ी के पूर्वी किनारे के समीप लाखोटा की बारी है जो एक छोटा सा दरवाजा है। जिससे दुर्ग के नीचे जा सकते हैं, कहा जाता है कि इसी द्वार के पास अकबर की गोली से जयमल लंगड़ा हो गया था।
- रानी पद्मिनी महल :- ये चित्तौड़गढ़ दुर्ग का सबसे बड़ा आकर्षण है, यह महल पद्मिनी तालाब के उत्तरी तट पर बना है। पद्मिनी तालाब के मध्य एक 3 मंजिला जलमहल भी बना है।
- रतनसिंह पैलेस:- महाराणा रतनसिंह द्वितीय द्वारा निर्मित महल, पास में ही रतनेश्वर तालाब व रतनेश्वर महादेव मंदिर बना है।
- फतहप्रकाश महल :- महाराणा फतेहसिंह द्वारा निर्मित है. यह चित्तौड़ किले का नवीनतम भवन है, वर्तमान में इसमें राजकीय म्यूजियम संचालित है।
- गोरा-बादल महल:- पद्मिनी महल के दक्षिण पूर्व में स्थित है इसमें वो गुम्बदाकार इमारतें हैं।
- नौ कोठा मकान / नवलखाँ भंडार:- ये बनवीर द्वारा निर्मित अधूरा लघुदुर्ग है, जो कुम्भा महल के सामने बना है यह अधूरा रह गया था I इसे ‘बनवीर की दीवार’ भी कहते है।
- हिंगलू अहाड़ा के महल :- हिंगलू डूंगरपुर का अहाड़ा सरदार था, जो इन महलों में रहता था।
किले के प्रमुख मंदिर:-
कालिका माता मंदिर (यह मूलतः सूर्य मंदिर था)- जिसका निर्माण 7वीं सदी के अंत में मानभंग नामक राजा ने करवाया था। यह प्रतिहारकालीन शैली में निर्मित है। (स्रोत-सुजस, पेज नं. 805) तुलजा भवानी मंदिर इसका निर्माण बनवीर ने अपने तुलादान के धन से करवाया था।
समीधेश्वर मंदिर / त्रिभुवननारायण मंदिर/मोकल जी का मंदिर- दुर्ग में गोमुख कुंड के किनारे नागर शैली में बना यह मंदिर परमार राजा भोज ने 1011 से 1055 ई. के बीच बनवाया था।
इसका पुनर्निमाण महाराणा मोकल ने 1428 ई. में करवाया था, तब से इसे ‘मोकल जी का मंदिर’ कहते हैं। इसमें शिव की त्रिमुखी मूर्ति स्थापित है इस मंदिर में 1150 ई. का कुमारपाल का शिलालेख लगा है।
कुम्भ श्याम मंदिर प्रतिहारकालीन शैली में निर्मित है। यह मूलतः शिव मंदिर था, बाद में वैष्णव मंदिर बना दिया गया। मंदिर को मलेच्छों द्वारा नष्ट किये जाने के बाद महाराणा कुभा ने इसका 1449 ई. में जीर्णोद्धार करवा कर विष्णु के बराह अवतार की मूर्ति को स्थापित करवाया। मंदिर के मूल निर्माता के बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती है।
मीरां बाई मन्दिर- यह मंदिर कुंभश्याम मंदिर के पास ही उसी परिसर में बना है। इसका निर्माण महाराणा सांगा ने अपनी पुत्रवधू मीरा की भक्ति के लिए करवाया था, इसी मंदिर के सामने ही रैदास की 4 खम्भों की छत्तरी बनी है।
- श्रृंगार चंवरी:- यह मूलतः शांतिनाथ का जैन मंदिर है, जिसका निर्माण कुंभा के कोषाध्यक्ष (भंडारी) ‘बेलका’ ने करवाया था, इसी में कुंभा की पुत्री रमाबाई के विवाह की चंवरी बनी है। सत्तबीस देवरी यह 11वीं सदी में निर्मित एक भव्य जैन मंदिर है। जिसमें 27 देवरियां बनी हैं, जिनमें जैन धर्म के तीर्थकरो की मूर्तियाँ स्थापित हैं।
- नीलकंठ महादेव मंदिर इसके बारे में किवदंती है कि महादेव की इस मूर्ति को पांडव भीम अपने बाजुओं में बांधे रखते थे।
- बाण माता मंदिर गुहिल वंश की कुल देबी हैं।
- अन्नपूर्णा (बिरवड़ी माता का मंदिर) इसका निर्माण महाराणा हम्मीर ने करवाया था।
- रतनेश्वर महादेव का मंदिर रतनसिंह पैलेस के बाहर बना है।
- सोमदेव मंदिर चित्तौड़ किले में
{स्रोत- राजस्थान का इतिहास एवं संस्कृति कक्षा-10 मा, शि, बो, अजमेर, पृष्ठ-70}
विजय स्तम्भ :- चित्तौड़ किले में
- इसका निर्माण महाराणा कुम्भा ने, सारंगपुर विजय (1437) के उपलक्ष्य में करवाया था, जिसमें उन्होंने मालवा शासक महमुद खिलजी प्रथम को हराया था।
- विजय स्तम्भ का निर्माण 1440 ई. में प्रारम्भ हुआ व 1448 ई. में चम कर पूर्ण हुआ, निर्माण में उस समय के 30 लाख रुपये खर्च हुये थे। यहा स्तम्भ 122 फिट ऊँचा, 9 मंजिला है जिसमें 157 सीढियों हैं।
- कीर्ति स्तम्भ के द्वार से प्रवेश करते ही जनार्दन की मूर्तियाँ दिखाई देती है।
- कीर्ति स्तम्भ की प्रथम मंजिल पर पार्श्व में अनंत, ब्रह्मा और रूद्र की मूर्तियाँ हैं। दूसरी मंजिल के पार्श्व की ताकों में अर्द्धनारीश्वर तथा हरिहर की मूर्तियाँ हैं।
- तीसरी मंजिल पर विंरचि, जयंत, नारायण और पितामह की मूर्तियाँ हैं। इस मंजिल पर अरबी भाषा में 9 बार अल्लाह-अल्लाह लिखा हुआ है।
- चौथी मंजिल पर त्रिखण्डा, हरिसिद्ध, पार्वती, हिंगलाज, गंगा, यमुना, सरस्वती, गंधर्व, कार्तिकेय एवं विश्वकर्मा की मूर्तियाँ बनी हुई है।
- पाँचवीं मंजिल पर लक्ष्मीनारायण, उमा-महेश्वर और ब्रह्मा- सावित्री की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। छठी मंजिल पर सरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाल की मूर्तियाँ हैं। (स्रोत राजस्थान का इतिहास, संस्कृति, परम्परा एवं विरासत, जैन और माली)
- सातर्वी मंजिल पर वाराह, नृसिंह, रामचन्द्र, बुद्ध आदि विष्णु के अवतारों की मूर्तियाँ हैं। आठवीं मंजिल पर कोई मूर्ति नहीं है।
- ०वीं मंजिल पर बिजली गिरने से नष्ट हो गयी थी जिसे महाराणा स्वरूपसिंह ने इसे पुनः बनवाया था।
- प्रमुख शिल्पी जैता और उसके पुत्र नापा, पोमा और पूंजा।
- नोट – पुराविद् श्री आर. सी. अग्रवाल ने विजय स्तम्भ के शिल्पियों के नामों की सूची प्रकाशित की है, जिसमें शिल्पी जैता के पुत्रों में भूमि, चुथी व बलराज का वर्णन भी मिलता है। इसके निर्माता कलाकारों (जैता तथा उसके पुत्र नापा, पोमा तथा पूंजा) की आकृतियाँ भी दूसरी ओर 5वीं मंजिल में बनी है। (स्रोत सुजस, पेज नं. 800)
- यह राजस्थान की प्रथम ईमारत है जिस पर (15 अगस्त, 1949 को 1 रुपये का) डाक टिकट जारी किया गया।
- यह स्तम्भ कुंभा की कीर्ति का बखान करता है अतः इसे ‘कीर्ति स्तम्भ’ भी कहते हैं। विजय स्तम्भ में जगह-जगह पौराणिक कथाएँ लिखी हुई हैं, तथा देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनी हैं, जो राजस्थान की, वास्तुकला का सुन्दर नमूना पेश करती हैं।
- यह ‘हिन्दू देवी देवताओं का म्यूजियम’ भी कहलाता है।
- गोपीनाथ शर्मा ने इसे लोकजीवन का रंगमंच कहा है।
- डॉ. गोट्ज ने इसे भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष/शब्दकोष कहा है।
- विष्णु को समर्पित होने के कारण डॉ. उपेन्द्र नाथ ने विजय स्तम्भ को ‘विष्णुध्वज’ के नाम से पुकारा है।
- गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे ‘पौराणिक देवताओं का अमूल्य कोष‘ कहा है।
- फर्ग्यूसन ने इसकी तुलना ‘रोम के टार्जन’ से की है।
- कर्नल टॉड ने इसे देखकर कहा “दिल्ली की कुतुबमीनार भले ही ऊँची हो लेकिन विजय स्तम्भ की कारीगरी सबसे बढ़कर है।“
- राजस्थान पुलिस व मा.शि. बोर्ड अजमेर के प्रतीक चिह्न में भी विजयस्तम्भ दर्शाया गया है।
• कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति :-1460 ई. (3 दिसम्बर, 1460 ई.) (विक्रम संवत् 1517, मार्गशीर्ष कृष्णा 5) रचयिता कवि अत्रि व उसका पुत्र महेश। यह विजयस्तम्भ की सबसे ऊपरी मंजिल पर लगा है। वर्तमान में इस प्रशस्ति की 2 ही शिलाएँ विद्यमान हैं। इसमें हम्मीर को ‘विषम घाटी पंचानन’ (विकट आक्रमणों में सिंह के समान) कहा गया। (स्रोत राजस्थान का इतिहास एवं संस्कृति कक्षा-10 मा. शि. बो, अजमेर, पेज-9)
जैन कीर्ति स्तम्भ:- चित्तौड़ दुर्ग
यह आदिनाथ/ऋषभदेव को समर्पित स्मारक है। पुरातत्त्व विभाग के अनुसार जैन व्यापारी बघेरवाल जीजा एवं उसके पुत्र पुण्य सिंह द्वारा 1301 ई. में निर्मित है। यह 75 फीट ऊँचा व 7 मंजिला स्तम्भ है। (श्रोत- राजस्थान सुजस पेज न. 1234) इसके समीप ही एक ऊँचे चबूतरे पर 14वीं शताब्दी का जैन मंदिर बना है।
चित्तौड़ के इतिहास प्रसिद्ध तीन साके:-
प्रथम साका :-
- 1303 ई., अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण, चित्तौड़ के शासक रावल रतनसिंह थे।
- 26 अगस्त, 1303, जौहर पद्मिनी व अन्य रानियों द्वारा।
- रतनसिंह के सेनापति गोरा बादल (चाचा-भतीजा) ने वीरगति प्राप्त की। विजय के बाद किला अलाउद्दीन खिलजी ने अपने पुत्र खिज्र खाँ को सौंपा व इसका नाम ‘खिजाबाद’ रखा।
- इस युद्ध का वर्णन तारीख-ए-अलाई (अमीर खुसरो) में मिलता है। कुछ समय बाद इसे जालौर के कान्हड़दे चौहान के भाई मालदेव मुंछाला को सौंप दिया था, 1326 ई. में सिसोदा के हम्मीर ने सोनगरा चौहानों से चित्तौड़ किला छीन लिया।
दूसरा साका:-
- 1535 ई., गुजरात शासक बहादुरशाह का आक्रमण, (सेनापति-रूमी खाँ)
- चित्तौड़ के शासक महाराणा विक्रमादित्य थे। (आक्रमण से पहले ही अल्पवय महाराणा विक्रमादित्य व उसके छोटे भाई उदयसिंह को ननिहाल बूंदी भेज दिया गया।)
- 8 मार्च, 1535 ई. को रानी कर्मावती व जवाहर बाई (विक्रमादित्य की रानी) के नेतृत्त्व में जौहर हुआ। (कर्मावती ने हुमायूँ को राखी भेजी थी, हुमायूँ से सहायता नहीं मिली)
- मेवाड़ी सेना का नेतृत्त्व रावत बाघसिंह (प्रतापगढ़) ने किया जो लड़ते हुये वीरगति को प्राप्त हुआ। इस युद्ध का वर्णन वीर विनोद (श्यामलदास) में मिलता है।
तीसरा साका:-
- 1568 ई., अकबर का आक्रमण
- चित्तौड़ के शासक महाराणा उदयसिंह थे (जो चित्तौड़ किले का भार जयमल राठौड़ को सौंप कर स्वयं गोगुन्दा की पहाड़ियों में चले गए थे)। युद्ध अकबर की सेना व जयमल राठौड़, पत्ता सिसोदिया (उदयसिंह के सेनापति) के मध्य हुआ।
- 25 फरवरी, 1568 ई, जयमल व पत्ता वीरगति को प्राप्त हुए। रानी फूलकंवर (पत्ता की रानी) के नेतृत्त्व में स्त्रियों ने जौहर किया।
- इस युद्ध में कल्ला जी राठौड़ दुल्हे के भेष में युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त हुए।
- युद्ध के बाद अकबर ने चित्तौड़ में कल्ल-ए-आम का आदेश दिया जिसमें 30,000 लोग मारे गये।
- चित्तौड़ दुर्ग में जयमल राठौड़ व कल्ला राठौड़ की छतरियाँ बनी हैं। अन्तिम दरवाजे (रामपोल) के सामने पत्ता सिसोदिया का स्मारक बना हुआ है। इस युद्ध का वर्णन अकबरनामा (अबुल फजल) में मिलता है। युद्ध के बाद आसफ खाँ को चितौड़ किले का भार सौंप कर अकबर अजमेर चला गया।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित महत्वपूर्ण स्थल:-
- चित्तौड़ी बुर्ज व मोहर मगरी:- दुर्ग का अंतिम दक्षिणी बुर्ज चित्तौड़ी बुर्ज कहलाता है इस बुर्ज के नीचे एक छोटी सी पहाड़ी है जो एक कृत्रिम टीला है 1567 के आक्रमण के समय अकबर ने किले पर आक्रमण के लिए प्रत्येक मजदूर को एक-एक तगारी के लिए एक-एक मोहर देकर इसे बनवाया था। जिससे वे अपनी तोपें उस पर रख सकें और किले के अंदर हमला कर सकें।
- हवून केसन का कथन “चित्तौड़ के सुनसान परित्यक्त किले में विचरण करते समय मुझे ऐसा लगता है मानो मैं किसी भीमकाय जहाज की छत पर चल रहा हूँ”।
- जौहर स्थल :- किले के अंदर के जौहर स्थल को वर्तमान में मिट्टी से भर दिया गया है।
चित्तौड़ दुर्ग को 21 जून, 2013 को यूनेस्को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया है।
2018 ई. में इस किले पर 12 रुपये का डाक टिकट जारी हुआ है।
- फोर्ट फेस्टिवल -चितौड़गढ़ में, फरवरी 2019 में पहला फोर्ट फेस्टिवल आयोजित हुआ।
- जौहर मेला -चित्तौड़गढ़ दुर्ग में, चैत्र कृष्ण एकादशी को आयोजित होता है।
“विशेष:– चित्तौड़ का लेख 971 ई, यह अभिलेख चित्तौड़ से प्राप्त हुआ है लेकिन वर्तमान में अहमदाबाद में संग्रहित है इसमें चित्तौड़ के तत्कालीन शासक नरवर्मा द्वारा महावीर जिनालय के निर्माण का उल्लेख है। इस प्रशस्ति में देवालयों में स्त्रियों के प्रवेश को निषिद्ध बताया गया है। यह राजस्थान का एकमात्र शिलालेख है जिसमें स्त्रियों के प्रवेश को देवालयों में निषिद्ध बताया गया है।” चित्तौड़गढ़ दुर्ग के बारे में इतिहासकार यदुनाथ सरकार का कथन- “मेवाड़ में यदि किसी ने हल्दीघाटी और चित्तौड़गढ़ को देख लिया तो समझ लो, उसने सब कुछ देख लिया और यदि इन्हें नहीं देखा तो सब कुछ देखने पर भी समझो उसने कुछ नहीं देखा”।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग के बारे में प्रसिद्ध कथन:- जठै झड्या जयमल कल्ला, छतरी छतरां मोड़। कमधज कट बणियाँ कर्मध, गढ़ थारे चित्तौड़ ।
श्यामनारायण पाण्डेय की कविता ‘पूजन‘- इधर प्रयाग न गंगासागर, इधर न रामेश्वर काशी इधर कहाँ है तीर्थ तुम्हारा, कहाँ चले तुम सन्यासी। मुझे न जाना गंगासागर, मुझे न रामेश्वर काशी तीर्थराज चित्तौड़ देखने को, मेरी आँखे प्यासी।
गोरा बादल (कविता) – पं. नरेन्द्र मिश्रा
गोरा बादल पद्मिणी चउपई – हेमरत्न
सज्जनगढ़ दुर्ग I Sajjangarh Monsoon Palace के बारे में मैं भी जाने
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